खुद ही गरीबां फाड़ लिया है,खुद ही गरीबां सीते है!
by

Shyam Shanker Sharma

Shyam Shanker Sharma
जीवन मे हम आत्ममंथन तब करते है जब हम सब तरफ से निराश हो जाते है,कोई जीने का उपाय नही सूझ रहा होता है,हमे अपनी एक एक भूल का अहसास होता है,इन्ही कशमकशो से भरा एक दर्द भरा गीत फ़िल्म "रात और दिन " के लिए सदी के महान गीतकार शैलेन्द्र ने लिखा था जिसे हिंदी फिल्मों के संगीतपितामह शंकरजयकिशन ने अपने दैवीय संगीत से अमरत्व प्रदान किया।इस गीत को आप लतमंगेशकर के सर्वश्रेष्ठ 10 गीतों में किसी भी स्थान पर रख सकते है।नारी के अंतर्द्वन्द व पीड़ा का यह गीत महान अदाकारा नरगिस पर फिल्माया गया था जो उनकी अंतिम फ़िल्म थी तथा जिसे राष्ट्रीय पुरस्कार मिला।शंकरजयकिशन की यह अनमोल रचना हिंदी फिल्म संगीत का मील का पत्थर है जो आने वाली पीढ़ी के संगीतकारो को राह दिखाता रहेगा।
अक्सर राही मील के पत्थर की उपेक्षा करता है तथा उसका उपहास उड़ाता है कि तुम बरसो से एक ही स्थान पर जमे हुए हो!किन्तु मील का पत्थर उसे समझाता है कि यदि में न होता तो तुम राह भटक गए होते,मंज़िल पर कभी पहुंच ही न पाते!में तो नित्य असंख्य राहगीरों को उनका सही मार्ग बताता हूँ जिससे वे सभी अपनी अपनी मंज़िलो को प्राप्त कर सके।शंकरजयकिशन हिंदी फिल्म संगीत के वास्तविक मील के पत्थर थे जिन्होंने न जाने कितने ख्यातिनाम संगीतकारो को उचित राह दिखाई जिसके असंख्य उदाहरण है।संगीत वास्तव में ईश्वर की भाषा है जो इस संगीत शब्द में ही समायी है,यह संगीत शब्द ही ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश के रूप में शंकरजयकिशन के संगीत के कण कण में समाया हुआ था,इसी कारण उन्हें कालजयी संगीतकार भी कहा जाता है।संगीत के प्रथम अक्षर "सं" को आप प्रथक कर दीजिए तो" गीत " शब्द की उत्पत्ती होती है,"गी" को प्रथक कर दीजिए तो "संत" शब्द की उत्पत्ति होती है,तथा "त" शब्द को प्रथक करने पर "संगी" अथार्थ साथी शब्द की उत्पत्ति होती है।जब गीत,संत और साथी आपस मे संयुक्त होते है तो संगीत के चरम का उदगम होता है जो परमात्मा की भाषा होती है जो समूचे ब्रह्मांड में व्याप्त है।अतः संगीत की कोई सीमा नही होती यह सर्वव्यापी है किन्तु" म्यूजिक" शब्द जो की अंग्रेजी का है संगीत की तरह स्वयं को परिभाषित नही कर पाता क्योकि वह भाव शून्य है जबकि हिंदी शब्द " संगीत " स्वयं में ही भावों से भरा पड़ा है,इसी कारण शंकरजयकिशन ने हिंदी गीतों की राह पकड़ी क्योकि वह भाव प्रधान होते है।
रात और दिन प्रकृति का एक चक्र है जिसमे मानव अपनी उम्र जीता है।वैसे जन्म और मृत्य जीवन के दो किनारे हैं, जिसमे जन्म के किनारे से हम मृत्यु के किनारे तक का जीवन सफर तय करते है।किंतु हकीकत में हम रोज मरते है और रोज जीते है।दिन जन्म का प्रतीक है तथा रात्रि मृत्यु का।
जीवन की इस कालावधी में हम ज़िन्दगी भर का सामान एकत्रित करने में ही गुजार देते है,जो एक मानसिक बड़ी भूल है!तभी किसी अज्ञात शायर ने लिखा भी है-----
सामान ज़िन्दगी भर का , पल की खबर नही
पर हम अपनी सफलताओं के मद में,धन के मद में,यौवन के मद में,पद प्रतिष्ठा के मद में स्वयं को न जाने क्या क्या सिद्ध करने में लग जाते है,हमे सफलता के ऐसे नशे की लत पड़ जाती है जो अहंकार व आत्मवंचनाओ से भरा होता है,हम स्वाभाविक जीवन न जीकर नाटकीय जीवन को प्राथमिकता देते है जिसे अँग्रेजी में गर्व से स्टेटस कहा जाता है।इस स्टेट्स के चक्कर मे हम समाज व सामाजिक मूल्यों की अवहेलना करने लगते है तथा स्टेटस सोसाइटी की गिरफ्त में फंस जाते है।जब हम अर्श से फर्श पर गिरते हैं तो हमे हमारी भूलो का अहसास होता है,किन्तु उस बुरे वक्त में कोई हमारे साथ खड़ा नही होता,सब दूर होते चले जाते है और हमारा अंतरमन पीड़ाओं से भर जाता है।फ़िल्म रात और दिन की नायिका इन्ही अन्तरद्वन्दों के साथ रात्रि में तनहा शहर की सड़कों पर विचरती हुई महान शैलेंद्र का लिखा गीत अपनी पीड़ाओं को व्यक्त करती हुई गातीं है------
जीना हमको रास न आया,हम जाने क्यो जीते है
क्या सावन क्या भादो अपने सब दिन रोते बीते है
शैलेंद्र के लिखे इस दर्द भरे गीत में जो संगीत संयोजन शंकरजयकिशन ने किया है उसे ही सार्थक संगीत कहा जाता है।यह संगीत फ़िल्म की कथावस्तु,उसके फिल्मांकन तथा गीत के भावों को संपूर्णता तथा वास्तविकता प्रदान करता है।अब हर वक़्त रोना ही नसीब में रह गया है क्योकि भूले ही ऐसी की है,जिससे छुटकारा सम्भव नही हो पा रहा है,स्वयं यह बात स्वीकारी जा रही है-----
हम से तो जग रूठ गया है,एक तुम्हारा क्या शिकवा
अब क्यों आहे भरते है हम,अब क्यो आंसू पीते है
यही किस्मत व कर्मो का परिणाम है कि अपने पराए सभी दूरियां बना लेते है जिसमे आहे भरने व आँसू पीने के सिवाय कुछ भी शेष नही बचता।
प्यार की बाज़ी आसान समझे,हमने बड़ी नादानी की
दिल की दुहाई देने वाले ,ये बाज़ी कब जीते है!
प्यार की बाज़ी आसान कहाँ होती है किन्तु उन्माद में नादानी हो गई,दिल की बात करने वाले दिल की बाज़ी कैसे जीत सकते है!इससे तो शतरंज की बाज़ी अच्छी है जिसमे अपनी टीम का कोई भी प्यादा जो किंतना भी महत्वपूर्ण हो अपने प्यादों को कभी नही मारता!यह बात प्यार की बाज़ी में नही होती!
जहाँ वासना होती है वहां प्रेम हो ही नही सकता!यही तो सबसे बड़ी नादानी है।
दौर-ऐ-जुनून में क्या क्या सूझी,क्या क्या हमने कर डाला
खुद ही ग़रीबां फाड़ लिया है,खुद ही गरीबा सीते है..!
एश एवं सफलताओं के जनून में इंसान कैसी कैसी भूले कर बैठता है न जाने क्या क्या कर बैठता है
किन्तु इनके परिणामो के बाद स्वयं को ही दंडित करता है स्वयं ही उस दंड से बचना चाहता है।
यह गीत स्वयं की भूलो को प्रतिपादित करता है जिससे असफलता व चिंताओं की उत्पत्ति हुई है।
चिन्ता एक ऐसा रोग है,जो कभी भी हमारे विचारों में धुन की तरह लग जाता है और हमे अंदर ही अंदर खोखला करता जाता है।यह विचारो का ऐसा प्रवाह है जो किसी भी घटना से पूर्व उसके हानिकारक
परिणामो की आशंका से सहज ही उपजने लगता है और प्रश्रय मिलने पर बढ़ता जाता है,इसका स्वरूप नकारात्मक होता है,इसकी वजह से रातों की नींद गायब हो जाती है।इस गीत में शैलेंद्र ने स्वयं की भूलो का अहसास भी कराया है जो आशा की किरण भी है!दिन है तो रात है जन्म है तो मृत्यु भी है,भूल है तो सुधार भी है।जो मनुष्य स्वयं को सदा अभागा समझते है,स्टेशन पर सदैव उसी समय पहुंचते है जब ट्रेन जा चुकी होती है,बाज़ार से ऊँचे से ऊँचे दामो पर सामान खरीदकर उसे कम कीमत पर बेचते है,यात्रा शुरू होने से पहले ही खराब मौसम की आशंका करने लगते है,वायुयान के साथ भयंकर दुर्घटनाओं का भय पालते हुए उड़ान से पहले ही भय से ग्रसित हो जाते है!इस गीत में ऐसी ही आशंकाओं ने नायिका के मन मे घर कर लिया है क्योकि उसकी गलतियाँ ही कुछ ऐसी है,किन्तु वह अपनी भूल का अहसास कर रही है अतः रात के बाद दिन तो आना ही है।शैलेन्द्र की यह बेहतरीन रचना है जिसमे बोध तत्व भी छिपा है।जहाँ बोध होता है,वही मानव चेतना का शिखर होता है।
शंकरजयकिशन का इस गीत में बेहतरीन संगीत है जो शैलेंद्र के शब्दों को लता मंगेश्कर के स्वर में बहुत ऊंचाई पर स्थापित करता है।शंकरजयकिशन की इन्ही विशिष्टताओं के कारण बहुत कुछ सहना भी पड़ा है जो अत्यन्त पीड़ादायक है।कभी कभी तो मुझे महसूस होता है कि शैलेंद्र ने यह गीत शंकरजयकिशन की पीड़ाओं को देखकर ही सम्भवतया लिखा हो!
जीना हमको रास न आया हम जाने क्यो जीते है!
जब शंकरजयकिशन जीवित थे तब भी उनमे विभाजन की बाते पड़ने में आती रहती थी,जब जयकिशन जी परलोक सिधार गए तब भी इस पर विराम न लगा और जब शंकर जी स्वर्गवासी हो गए तब भी यह क्रम चलता रहा।विस्मय है कि 1949 से 1987 तक सदा शंकरजयकिशन को विभाजित करने की कुचेष्टा की जा रही है। यह गीत शंकर ने बनाया यह गीत जयकिशन ने बनाया,शंकर के साथ शैलेन्द्र तो जयकिशन के साथ हसरत जयपुरी को स्थापित करना एक प्रचलन सा बन गया है।क्योकि ऐसी पोस्ट मीडिया में डालो जो विवादों को जन्म दे जिस पर ढेर सारे कमेंट्स आये यह एक आदत सी बन गयी है।हैरत होती है शंकरजयकिशन के ग्रुप्स में ही उन गीतों की बकायदा सूची प्रस्तुत की जा रही है कि निम्न गीत शंकर के है और निम्न गीत जयकिशन के, समस्त महान कार्य जयकिशन ने किए तथा तमाम असफलताओं का कारण शंकर थे,शंकरजयकिशन को कभी भी राजकपूर की परिधि से बाहर निकलने ही नही देते जबकि उनकी लगभग 187 फिल्मो में राजकपूर की मात्र 18 फिल्मे है,शंकरजयकिशन के साथ उनके सहायकों को जोड़े बिना भी चैन नही आता!यदि दत्तू ठेका इतना ही महान था तो फिर शंकरजयकिशन क्या थे।सभी संगीतकारो के ग्रुप में मात्र उन्ही पर फोकस रहता है किन्तु शंकरजयकिशन के ग्रुप में राजकपूर, दत्ताराम,सेबेस्टियन को जोड़े बिना चैन ही नही पड़ता!कोई तो ऐसा ग्रुप हो जहां सिर्फ और सिर्फ शंकरजयकिशन हो,जहाँ शंकरजयकिशन प्रेमी सकूँन से तो उनको याद कर सके।शंकरजयकिशन को विभाजित किया ही नही जा सकता,फूल को उसकी खुशबू से कैसे प्रथक करोगे?वसुंधरा को हरियाली से कैसे प्रथक करोगे? चांद को उसकी चांदनी से कैसे प्रथक करोगे?राम को कैसे कृष्ण से प्रथक करोगे?शंकरजयकिशन का मेने कोई भी ऐसा लेख नही पड़ा जिसमे कभी दोनों ने अलग होने की बात कहीं हो।बरसात से ही उनका ऐसा अनुबंध था कि उनका संगीत एक है जिसका निर्वाह 1971 तक सफलता से हुआ और 1971 के बाद भी यह 1987 तक उसी क्रम में चलता रहा जो कि एक मिसाल है।न जाने क्यो शंकरजयकिशन के मध्य दरारे डालने का काम यह बुद्धिजीवी करते है!
जैसा कि मैने इस लेख के आरम्भ में लिखा था कि संगीत शब्द गीत,संगी ओर संत से बना है तो शंकरजयकिशन के संगीत के गीत व साथी शैलेंद्र व हसरत जयपुरी थे,और यह चारो संत थे।
इनको विभाजित करने वालो को करारा जवाब देना होगा।
खुद ही गरीबां फाड़ लिया है,खुद ही गरीबां सीते है!!
Shyam Shanker Sharma
Jaipur,Rajasthan
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