दिल की गिरह खोल दो

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आज राष्ट्रीय भाषा हिंदी दिवस है,इस कारण मेरे मस्तिष्क में एक विचार आया कि क्यो न फ़िल्म रात और दिन के शैलेंद्र के लिखे गीत से अपने दिल की गिरह को भी खोल दूं !कारण यह है कि गोरे साहिब तो चले गए किन्तु काले साहिबो ने अपना वर्चस्व बनाये रखने के लिए गोरे साहिबो की राह पर ही चलना पसंद किया।समस्त भाषाएं आदर योग्य होती है किन्तु राष्ट्र की भाषा देशवासी के लिए गौरव की बात होती है।विभिन्न राज्यो की अपनी अपनी भाषाये है जो पूजनीय है किंतु सम्पूर्ण राष्ट्र को जोड़ने वाली एक राष्ट्रभाषा का होना भी जरूरी है और निसंदेह हिंदी हमारी राष्ट्रीय भाषा है जो तेजी से स्वतः विकास करती जा रही है।अंग्रेजी का ज्ञान विश्व को जानने के लिए आवश्यक है किन्तु यह ज्ञान यह तो नही सीखाता का राष्ट्रीय भाषा की उपेक्षा करो?
आज रूस,चीन,जापान,फ्रांस,इटली,कोरिया जैसे विकसित देश अपनी अपनी भाषा का ही उपयोग कर कहाँ से कहाँ पहुंच गए किन्तु हम मानसिक गुलामी से कभी मुक्त ही नही हो पाए।
शंकरजयकिशन का ही उदाहरण लेते है एक दक्षिण भारत से थे तो दूसरे गुजरात से,किन्तु दोनों ने मिलकर हिंदी फिल्मी गीतों का एक इतिहास रच दिया।इसका कारण था वह राज्यो से ऊपर उठकर
राष्ट्रहित को सर्वोपरी मानते थे अतः उन्होंने असंभव को सम्भव कर दिखाया।
आन प्रोडक्शन की फ़िल्म रात और दिन को सत्येन बोस ने निर्मित किया था जिसकी कहानी अख्तर हुसैन ने लिखी थी,यह नरगिस की आखिरी फ़िल्म थी जिसे राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला।यह फ़िल्म शंकरजयकिशन के संगीत का बेहतरीन संग्रह है।इस फ़िल्म के एक गीत में शैलेंद्र लिखते है----
दिल की गिरह खोल दो चुप न बैठो कोई गीत गाओ
महफ़िल में अब कौन है अजनबी तुम मेरे पास आओ
शैलेंद्र को हिंदी से असीम लगाव था,उनके जैसा हिंदी गीतकार अभी तक तो दूसरा उत्पन नही हुआ!
सरल हिन्दी भाषा में गहरीं बाते लिख जाना शैलेन्द्र का गुण था,तभी तो वह लिख रहे है-----
मिलने दो अब दिल से दिल को मिटने दो मजबूरियों को
शीशे में अपने डुबो दो सब फासलों दूरियों को
आँखो में मै मुस्कराऊं तुम्हारे जो तुम मुस्कराओ...
अब हिंदी वाले दिलो को आपस मे मिलना ही होगा,मजबूरियों का बहाना त्यागना होगा,हिंदी विरोध के सभी फासलों को हिंदी के शीशे में डुबोना हीं होगा,तभी प्रत्येक देशवासी एक दूसरे की आंखों में मुस्कराहटों का चमन देख सकेगा।हम हिंदी फिल्मे देखते है तो हिंदी भाषा पर गर्व क्यो नही करते?
निसंदेह हिंदी की विकास यात्रा में फिल्मो का सर्वाधिक योगदान है।शंकरजयकिशन जैसा हिंदी प्रेम तो एक नज़ीर है।
आज हिंदी का शब्दकोश 20 वर्षो में 20,000 से बढ़कर 1.5 लाख हो गया है जबकि अंग्रेजी के ऑक्सफोर्ड के शब्दकोश में विगत 30 वर्षों में मात्र 9500 शब्द ही जुड़े है।दुनियाँ के 170 देशों में हिंदी पढ़ाई जा रही है तथा यह संसार मे सबसे ज्यादा बोलने वाली चौथी भाषा है।यूएन ने हिंदी समाचार सेवा आरम्भ कर दी है।ये सम्मान पाने वाली हिंदी गैर ..यू एन एशियाई भाषा है।नासा के डॉ ब्रिक्स के अनुसार हिंदी एक मात्र ध्वनात्मक(फोनेटिक) भाषा है जो भविष्य में कंप्यूटर की भाषा होगी।दुनियाभर में चार भाषाएं प्रमुख है जिनका लोकप्रिय क्रम इस प्रकार है:-
1,मैंडरिन
2,स्पेनिश
3,अंग्रेजी
4,हिंदी
हम मैंडरिन भाषा को पछाड़कर अव्वल बन सकते है!किन्तु हमारे देश के तथाकथित मानसिक बुद्धिजीवी गुलामो ने इस को रोक रखा है,आश्चर्य है कि यह लोग अपनी प्रांतीय भाषा का भी आदर नही करते जो कि इनकी मातृभाषा है।लगे हाथ करोड़ो में अपने देश की भाषाओं का प्रतिशत भी बता दूं तो बेहतर होगा।
1,हिंदी...53 करोड़
2,बंगाली..9.72 करोड़
3,मराठी..8.30 करोड़
4,तेलगू..8.11 करोड़
5,तमिल..6.90 करोड़
10,मलयालम..3.48 करोड़
(गुजराती,उर्दू,कन्नड़ तथा उड़िया बोलने वालों का क्रम क्रमश 6,7,8 तथा 9 पर है)
सर्वाधिक खुशी की बात है कि विगत 5 वर्षों में दक्षिण में हिंदी सीखने वालो की संख्या 22% बड़ी है जो संगीतकार जोड़ी शंकरजयकिशन के शंकर जी को सच्ची श्रद्धांजली है क्योकि वही प्रथम संगीतकार थे जिन्होंने दक्षिण से आकर हिंदी गीतों का परचम समस्त हिन्दुस्तान में फहराया व एक नूतन युग की शुरुआत की।इंटरनेट पर हिंदी सबसे तेज 94% की दर से बढ़ रही है।यह कार्य स्वतः हो रहे है,इनमें तथाकथित अंग्रेजी बुद्धिजीवियों का तनिक भी योगदान नही है।सम्पूर्ण हिंदी फिल्म है किन्तु फ़िल्म के टाइटल अंग्रेजी में ही दिखाना है,पोस्टर्स का भी यही हाल है।जबकि हॉलीवुड की 1750 करोड़ की एक एक फ़िल्म का रूपांतरण हिंदी में किया जा रहा है क्योकि वह जानते है कि फ़िल्म बनाने में जो लागत आई है उसमे लाभ मात्र हिंदी ही दिला सकती है।हिंदी पड़ने से बच्चो का गणित सुधरता है,निर्णय व तर्क क्षमता भी बढ़ती है!यह अनुसंधान हरियाणा के मानेसर में स्थित राष्ट्रीय मस्तिष्क अनुसंधान केंद्र में किया गया है जिसमे उल्लेखित है कि हिंदी पड़ने से मस्तिष्क का ऊपरी हिस्सा सक्रिय होता है।अमरीकी डॉक्टर्स के बीच मे हिंदी तीसरी सबसे ज्यादा समझे जाने वाली भाषा है,अमरीका की सबसे बड़ी मेडिकल सोशल नेटवर्क कंपनी डोक्सिमिटी ने 60,000 डॉक्टर्स की प्रोफाइल के अध्ययन में बताया कि करीब 14 प्रतिशत अमरीकी फिजिशियन हिंदी जानते है।किंतु हमारे ही देश के गुलामी मानसिकता वाले ऐसा करने से स्वयं को छोटा समझते है!हिंदी को पीछे धकेलने में इनका ही प्रमुख हाथ है किन्तु वक़्त ने इनको पराजित कर बेनकाब कर दिया है।इतिहास में लिखा है-----1608 में ब्रिटिश जहाज के व्यापारी हॉकिन्स ने जहांगीर से बिना दुभाषिये के हिंदी में बात की,उसके बाद यूरोपियन व्यापारी जान केटलर ने हिंदी सीखकर 1685 में डच भाषा मे एक व्याकरण की रचना की।चीन की दीवार पर हिंदी में लिखा है---ओम नमो भगवते
जापान में 1950 से 1970 के दशक के सभी हिंदी फिल्मों के गीतों का जापानी में अनुवाद किया है,स्मरण रहे यह स्वर्णिम काल शंकरजयकिशन के नाम से जाना जाता है।
केरल के पल्लीपुरम गांव में पंचायत ने ही सभी के लिए हिंदी सीखना अनिवार्य कर दिया है।उत्तराखंड में मसूरी के पास बसे लेडोर गांव में 108 वर्ष पुराने स्कूल में प्रतिवर्ष 200 विदेशी हिंदी सीखने आते है।हिंदी फिल्मों के बढ़ते कारोबार ने हिंदी को अब नई दिशा प्रदान कर दी है।जैसे जैसे हिंदुस्तान की सैन्य शक्ति,व्यापार ,अंतरिक्ष तथा विज्ञान में प्रगति होगी हिंदी बहुत जल्दी ही अपने चौथे स्थान से उपर आकर अंग्रेजी को पछाड़ देगी तथा एक न एक दिन विश्व की प्रथम भाषा बन जाएगी।आदरणीय प्रधानमंत्री आजकल अपने सभी संबोधन हिंदी में ही कर रहे है क्योकि वह जानते है सशक्त राष्ट्र के लिए सशक्त हिंदी भाषा जरूरी है,अंग्रेजी बुद्धिजीवियों को यह बात मस्तिष्क में अंकित कर लेनी चाहिए कि मोदी आज सम्पूर्ण विश्व मे राष्ट्रभक्ति के कारण ही पूजनीय है।
राष्ट्रभाषा हिन्दी के युग निर्माता श्री भारतेन्दू हरीश चंद्र जी की 169 वी जयंती हाल ही में मनाई गई,हिंदी के लिए उनके द्वारा किये गए अथक परिश्रम के परिणाम अब सामने आ रहे है।
जो कार्य हिंदी के युग निर्माता ने राष्ट्र के लिए किया वहीं कार्य शैलेंद्र ने हिंदी फिल्मो के लिए किया,उन्होंने शंकरजयकिशन के संगीत में अप्रितम हिंदी गीतों के द्वारा राष्ट्र को एक नई दिशा दी!तभी वो लिखते है------
हम तुम ना हम तुम रहे अब
कुछ और ही हो गए अब
सपनो के झिलमिल नगर में
जाने कहाँ खो गए अब
हम राह पूंछे किसी से,ना तुम अपनी मंज़िल बताओ...
हम हिंदुस्तानी अब विशेष हो गए है,अब हमें राष्ट्रभाषा का झिलमिल नगर मिल गया है जिसमे हमे खो जाना है,हमे न अब किसी से राह पूछनी है न ही अपनी मंज़िल बतानी है।हिंदी भाषा को वास्तव में किसी ने पहचाना है तो वह थे----डॉ कामिल बुल्के!!
डॉ बुल्के फ्लेमिश भाषी बेल्जियन थे।उन्होंने इंजीनियरिंग में ग्रेजुएशन किया था,उन्ही दिनों उन्हें कही से रामचरितमानस के दोहे का अंग्रेजी अनुवाद व तुलसीदास जी का एक चित्र देखने पड़ने को मिला।दोहे का अनुवाद पड़ व तुलसीदास जी की विचित्र पोशाक देखकर वह अचरज में पड़ गए कि एक सन्यासी ऐसी उत्कृष्ट रचना लिख सकता है,वह भारत की आध्यत्मिक संपदा की ओर आकर्षित हुए,उन्हें सबसे ज्यादा जिस विशेष चीज ने आकर्षित किया वह थी हिंदी भाषा।वे हिंदी भाषा से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अपने पंसदीदा विषय रामचरितमानस पर हिंदी में ही पी.एच. डी. की,शोधकार्य हेतु भवन का निर्माण करवाया और आजीवन लोंगो को प्रेरित व प्रोत्साहित करते रहे।तुलसीदास जी उनके आदर्श थे।हिंदी भाषा के के बारे में उनका विचार था----दुनियाँ भर में शायद ही कोई ऐसी विकसित साहित्यिक भाषा हो,जो हिंदी की सरलता की बराबरी कर सके।
डॉ बुल्के हिंदी के इतने बड़े पक्षधर थे कि सामान्य बातचीत में भी अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग पसंद नही करते थे।एक शोध कर्ता ने उनके दरवाजे पर दस्तक देते हुए कहा----में आई कम इन सर...!
दरवाजा तुरंत खुला,सिल्क की चादर लपेटे डॉ बुल्के ने कहा....आपने अभी किस भाषा का प्रयोग किया है!क्या आपकीं अपनी कोई बोली अथवा भाषा नही है?आप स्वतंत्र राष्ट्र के नागरिक है,फिर भी विदेशी अंग्रेजी भाषा का व्यवहार हिंदी के एक प्राध्यापक के पास क्यो कर रहे है?आपकीं मातृभाषा क्या है? युवक अवाक रह गया उसने बताया कि उसकी मातृभाषा मैथिली है।तब डॉ बुल्के ने कहा" भविष्य में आप मेरे पास आये तो मैथली अथवा हिंदी में ही बात करे,अंग्रेजी में कदापि नही"।
डॉ बुल्के ने बचपन से ही यह महसूस किया था कि उनके देश बेल्जियम में फ्लेमिश की जगह फ्रांसीसी भाषा को अधिक ऊंचा दर्जा दिया जाता था।उन्हें अपनी मातृभाषा का अपमान सहन नही होता था अतः वह उसके सम्मान की रक्षा के लिए सैनानी बन गए।जब वो भारत आये तो बुद्धिजीवी भारतीयों की मानसिकता को देखकर दंग रह गए।वह भारत सिर्फ इसलिए आकर बसे कि हिंदुस्तानियों को हिंदी भाषा की गरिमा का अहसास करा सके।
फादर बुल्के ने हिंदी साहित्य में इलाहबाद विश्वविद्यालय से" रामकथा--उत्पत्ती और विकास" विषय पर पी.एच. डी. की।ये तुलसीदास जी के अनन्य भक्त थे क्योकि उन्ही के माध्यम से उन्होंने जीवन के गूढ़ अर्थों व आध्यात्मिक ज्ञान की गहराई को समझा,हिंदी भाषा पर उन्हें बड़ा गर्व था।कॉलेज के मंच से एक बार उन्होंने कहा-------
" संस्कृत राजरानी है तो हिंदी बहुरानी है और अंग्रेजी नोकरानी है,लेकिन नोकरानी के बिना भी काम नही चलता,इसी कारण लोग नोकरानी को महत्व देते है,अतः अपना महत्वपूर्ण स्थान पाने के लिए बहुरानी को मेहनत करनी पड़ेगी"।
फादर बुल्के को हिंदी का अपमान बर्दाश्त नही था,हिंदी बोलने के बजाय अंग्रेजी बोलने वाले भारतीयों से उन्हें नाराजगी थी,वह कहते थे जिस अंग्रेजी भाषा बोलने में तुम शान समझते हो वही तुम्हारा सबसे बड़ा दुर्भाग्य है तथा राष्ट्र के पतन का कारण है।वह सदा कहा करते थे अपनी भाषा पर गर्व करना चाहिए,शान से उसे बोलना चाहिए तथा उसका सम्मान करना चाहिए।
महान फादर बुल्के का हिंदी के प्रति सम्मान भारतीय संस्कृति की महानता का परिचायक है।बेल्जियम के एक छोटे से गांव रम्स-कपैले में 1 सितंबर 1909 को इस महान विभूति का जन्म हुआ।यह 7 महीने में पैदा हुए,जिससे इनके बचने की बहुत कम आशा थी,यह बहुत कमजोर थे तथा इन्हें बोलने में भी दिक्कत आती थी,इसलिए माँ इनका बहुत ध्यान रखती थी।डॉ बुल्के यह बात कहते थे उनके जीवन पर सर्वाधिक प्रभाव माँ का रहा।बीज पिता देता है लेकिन उसे पृथ्वी की तरह पल्लवित माँ ही करती है।बुल्के भी माँ से बहुत ज्यादा जुड़े हुए थे।इनके ताऊजी ने इन्हें "क़ामिल" नाम दिया।इसके दो अर्थ होते है..एक है वेदी सेवक दूसरा अर्थ एक पुष्प का नाम है।लेकिन फादर कामिल बुल्के ने अपने नाम के दोनों ही अर्थ साबित कर दिखाए।उनका जीवन व व्यक्तित्व आज भी पुष्प की तरह महकता है और वेदी सन्यासी के रूप में वह जेसुइट संघ में दीक्षित सन्यासी रहे।फ़ादर बुल्के अपने सम्पूर्ण जीवन मे तुलसीदास जी के अत्यन्त समीप रहने के लिए प्रयत्न शील रहे।अपने जीवन के अंतिम दिनों में वह बीमार हो गए थे।उन्हें कोई साम्राज्य,पद प्रतिष्ठा, धन संपदा नही चाहिए थी,बल्कि उनकी चाहत थी--कुछ अतिरिक्त आयु की,जिससे वो अपना अधूरा कार्य पूर्ण कर सके।लेकिन यह संभव नही हो सका, क़ामिल जी को अहसास हो चुका था कि उनकी यह छटपटाहट निर्रथक है,क्योकि इस संसार मे ऐसा कोई काम नही जिसे अंतिम रूप से पूर्ण माना जा सके।भारत और हिंदी भाषा के उत्थान के लिए अपना जीवन समर्पित करने वाले फादर कामिल बुल्के ने अपने जीवन की अंतिम सांसे भारत भूमि में ही वर्ष 1982 में ली।उनके इसी भारत और हिंदी प्रेम के कारण उन्हें पद्मभूषण के सम्मान से सम्मानित किया गया।
ग्रह मंत्री माननीय अमित शाह ने आज हिंदी दिवस पर बहुत महत्वपूर्ण बात कही"जो देश अपनी भाषा छोड़ देता है वह अपना अस्तित्व भी खो देता है"यह बात काले अंग्रेजी बुद्धिजीवियो को मस्तिष्क में उतार लेनी चाहिए।अमित शाह जी की यह बात फादर बुल्के की विचारधारा को बल प्रदान करती है।
आज हिंदी दिवस पर मैने फ़िल्म रात और दिन के गीत "दिल की गिरह खोल दो चुप न बैठो" के माध्यम से अपनी राष्ट्रभाषा हिन्दी को सम्मान देने वाली विभूतियों को याद किया है।दक्षिण के संगीतकार शंकर जी,गुजरात के संगीतकार जयकिशन जी,महान हिंदी गीतकार शैलेन्द्र जी,हिंदी के युग निर्माता श्री भारतेंदु हरिश्चन्द्र जी व फादर बुल्के जी को श्रद्धांजलि अर्पित की है,ये वो व्यक्तित्व थे जिन्होंने हिंदीभाषा के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ योगदान दिया जिसे भुलाया नही जा सकता क्योकि इनकी मानसिकता संकीर्ण नहीं थी।इसी कारण आज मेने विभिन्न स्रोतों से हिंदी भाषा के पक्ष रखे है जो हिंदी भाषा की महानता सिद्ध करते है।
श्याम शंकर शर्मा
जयपुर,राजस्थान।

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